हीरामन कारसदेव - 1 राजनारायण बोहरे द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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हीरामन कारसदेव - 1


हीरामन कारसदेव

राजनारायण बोहरे

लेखक के उपन्यास "मुखबिर " का अंश

मैने अनुभव किया था कि बीहड़ में हम जिस भी गाँव के पास से निकलते हरेक ज्यादातर गांवों के बाहर एक चबूतरा जरूर बना होता । कृपाराम पूरी श्रद्धा से उस चबूतरे पर सिर जमीन पर रखकर प्रणाम करता ।

मुझ लगातार यह उत्सुकता रहने लगी कि इस जैसा हिंसक आदमी कौन से देवता को इतना मानता है, किसी दिन पूछेंगे ।

एक दिन मौका देख कर मैंने पूछा तो कृपाराम ने बताया-ये हम ग्वाल बालों के देवता हीरामन कारसदेव है ।

’इनकी कथा हमने कहीं सुनी नहीं, दाऊ किसी दिन सुनाओ न !‘मेरी सहज उत्सुकता थी ।

कृपाराम ने आश्वासन दिया कि जिस दिन कोई गोटिया मिल गये, संग में ले आयेंगे और सब लोगों को कारसदेव का किस्सा सुनायेंगे । बहुत दिनों से कारसदेव की गोट नही सुनी , हम सब भी सुन लेंगे ।

उस दिन राशन लेकर लौटे अजयराम के साथ पीले से साफे, घुटन्ना धोती और मटमैली हो चुकी कमीज वाले चरवाहे जैसे तीन-चार आदमी भी जाने कहां से चले आये थे । लल्ला धीमे से बुदबुदाया-‘ लो जे चारि पेट और वढ़ि गये । अब जाने कितने दिन तक अब इन चार संड- मुसंड आदमियों को भी रोटी बनाना पड़ेगी !‘

रात को जब खाना बनने लगा अजयराम ने लल्ला पडित को दूध की केन दिखाई-‘ सुनि ले रे पंडत ! केन मे से दूध निकारि ले, आज खीर बनेगी अपने यहाँ, खीर को ही भोग लगतु कारसदेव को ....और आज तनिक धो-मांजि के रोटी बनइये ,जूठ-बिठारो मति कर देइये । ‘‘

जब भोजन बन गया, कृपाराम ने कहा-‘‘ अबे रोटी मति परसिये रे पंडत! जे गोटिया पधारे है अपने हिंया ! जे कारसदेव की कथा सुनावेंगे, फिर भोजन-पानी होयगो अपुन सबको ।‘‘

........और उन चारों में से एक दुबले पतले से आदमी ने अपने भारी भरकम झोले में से सामान निकलाना शुरू किया- डमरू जैसे स्वरूप का फिट-डेढ़ फिट लम्बा पीतल का एक ढोल और पूजाका सामान (यानीकि रोरी-चावल-कलावा-खोवा की मिठाई के अलावा अगरबत्ती का एक छोटा सा पैकेट भी )उसने निकाला । आखिरी में उसने एक नया कम्बल निकाला ।

डंरों के पास की एक ऊंची सी जगह को साफ करके कम्बल बिछाया गया, जिस पर गोटिया लोग बैठे । गोटियों के आसपास बागी भी बैठ गये और तिरपाल सरका के अपहृत लोग भी खिसक आये ।

गोटियों के सिर हिलने लगे। बुजुर्ग सज्जन ने कान पर हाथ धरा और लम्बा सुर साधा- ये ये.......

ये वरदानी कहिए , ये रजबोला नाम

एलादी करी तपस्या , भोला रे.........

वरदान ले आई भोला से , निरभैया रे.......

वे लोग दो घंटे तक मिल जुल कर गीत गाते रहे । बाद में सियावर रामचंद्र की जय के साथ उन्होंनेजय बोली, गाना बंद किया और पसीना पोंछने लगे ।

लल्ला पंडित ऐसे समय में ज्यादा निकटता दर्शाता है, उसने बड़े श्रद्धा भाव से उन बुजुर्ग सज्जनसे पूछा-‘‘ दाऊ, जि कथा बोलि के नहीं सुनाइ जा सकत्तु ! गायवे में तनिक समझु नही पड़ रही ।‘‘

‘‘ खूब सुना सकतु । तुम सबमें धीरज है ?‘‘ बुजुर्ग सज्जन बड़े उत्साहित थे ।

‘‘ बोलिके सुननो है तो पहले रोटी-पानी है जान देउ, फिर सुन लेइयो ।‘‘कृपाराम ने बीच में दखल दिया तो लल्ला पंडित सहम कर उठ गया और खाना परसने की मिसल लगाने लगा ।

खा-पी कर वे लोग आराम से बैठे थे कि वे बुजुर्ग सज्जन कथा सुनाने को उत्सुक हो उठे, ‘‘हां तिममे से पंडित कौनु है जो कथा सुनिवो चाह रहो हतो ?‘‘

‘‘ हम हैं दाऊ‘‘ लल्ला पंडित उछाह में भर उठे ।

........और वे बुंजुर्ग सज्जन कथा सुनाने लगे ।

गड़राजोन एक नगर था, वहाँ राजू नाम के एक गूजर महाराज रहते थे । गूजर भी ऐसे समृद्ध कि घर में ईश्वर का दिया सब कुछ । डांग में उनका करियल (भैंसों) का समूह चरने का छूटता तो काला समुंदंर हिलोरे लेता दीखता । सार में से गायों का समूह छूटता तो धरती सुफेद हो जाती । दूध दुहने के लिए मईदार जुटते तो छोटा-मोटा तला भर जाता । बड़े-बड़े कडाह दूध से भर जाते, ओंटने के लिए भटटी पर रखे जाते तो कोसन दूर तक दूध के औेटने की सोधी सी खुशबू छा जाती । घर में अल्ले-पल्ले दूध-घी होता, भीतर बिण्डा में नाज का भण्डार और घरवाली की कुठरिया में हीरा-मोती की डलियें भरी धरी रहतीं ।

राजूका एक छोटा भाई गोरे था, जो अपने बड़े भाई के प्रति अपार श्रद्धा रखता और उनकी आज्ञा का अक्षरसः पालन करता था । घर में सोडा नाम की सुलक्षिणी-सर्वगुण सम्पन्न पत्नी थी , सन्तानों में एक लड़का सूरपाल और बेटी एलादी । एलादी ऐसी सुन्दर ,ऐसी खपसूरत,ऐसी सलोनी कि राजा इन्दर के दरबार की अप्सरा उसके सामने पानी भरे । अंग अंग में सुंदरता दीपती, बदन से कमल की गंध छूटती , रूप की ऐसी छटा कि मनुज की बात कौन कहे, जड़-चेतन माने पशु-पक्षी, देवता-दानव, सिद्ध़-जिन्न-भूत प्रेत जो भी उसे एक बार देख ले मोहित हो जावे । गाँव में निकलती तो रोशनी सी हो जाती । गाँव में एक अकेला घर गूजरों का, बाकी सब जाट, जिनकी आंखों में सदा से राजू गूजर की तरक्की अखरती थी और हमेशा मौका की तलाश मे रहते, जब कि राजू को नीचा दिखायें ।

ऐलादी बारह बरस की हुई ,जवानी आने को थी कि राजू को उसके ब्याह की चिन्ता हुई । कुंवर ढूढ़े जाने लगे । गुजर समाज में जहां -जहां कुंवर होने की खबर होती राजू अपनी लड़की के लिए लड़का देखने पहुंच जाते ।

उधर जाटों ने मिल बैठ कर विचार किया कि राजू अकेला है, कमजोर है, इसकी लड़की इतनी खपसूरत कि साक्षात लछमी , जहां जायेगी उजाला कर देगी । गाँव का धन गाँव से बाहर काहे जाये, राजू से कह दो कि गाँव में लड़को की कमी नहीं है, जाट विरादरी में से किसी भी लड़के को पसंद कर लो, लड़की का ब्याह आन गाँव के लड़के सेस काहे करते हो, यही कर डालो । और कोई न जमता हो तो राजा जनवेद के कुंवर से पक्की कर दो । राजू तक बात पहुंची तो राजू को जैसे झटका लगा, अपनी विरादरी छोड़ के काहे को आन विरादरी में बिटिया ब्याहें ! सोचा मना कर देंगे सीधे-सीधे !

फिर बुद्धि ने चेताया कि अगर सीधे मनाही कर देंगे तो जाटों की हुकूमत है, सब मिलके हाल ही चढ़ बैठेगे और मरजी-बेमरजी बेटी ब्याह ले जायेंगे ।

फिर क्या रस्ता बचा है ?

गाँव मे रहेंगे तो राजा की ‘हांजू हांजू‘ कहना पड़ेगी । बैटी जाटो में ब्याहना पड़ेगी । इससे बचना है तो गाँव से बाहर जाना पड़ेगा । बाहर कहां ? चौरासी कोस तक के फेरा में जाटों के घोड़े रोज पहरा लगाते बिचरण करते है.....कहीं भी जाओ,उनके घेरे में ही रहोगे । दो दिन तक घर द्वारे बंद रहे, पति-पत्नी बैठे-बैठे घोकते रहे, क्या करें.....कहां जावें..? कैसे बचें जाति डूबने से !

सहसा राजू महाराज ने निर्णय लिया , जे देश छोड़ चलो । आन देश चलो, जहं इन जाटों का राज न हो ।

राजू महाराज का निर्णय पत्नी ने हां कह के माना, भाई गोरे ने पाँव छू के माना, बच्चे तो निराट छोटे थे वे बेचारे कहां से तरक करते ।

रतोंरत तैयारी हुई । और कुछ तो ले नहीं जा सकते थे अकेली करियल ही गूजर की दौलत होती है सो दुधारू करियल छांटी और हांक के रात को ही गोरे को चले जाने का इशारा किया। कहा रास्ते में कोई मिले तो कहना हरी घास की तलाश में दुधारू भैंसें चराने ले जा रहे हैं । चरागाह की तलाश में दूर-दूर तक भटकना पशु पालको की सदा से आदत रही है, सो कोई काहे का शक करता । छोटा भाई गोरे भैंसे-पडे़रू लेकर चल पड़ा, और चलता ही रहा, रात दिन की मंजिल करके तीन दिन मे वह जाटों की सीमा पार कर गया और राजपूताने में पहुंच गया । इधर गोरे के राजपूताने में पहुंचने का आंदाज लगाके राजू ने तनिक सी रात होते ही पत्नी और बच्चो को लिया और बिना सामान के घर छोड़के चल दिया । पत्नी सोडा को दुख था कि घर छोड़ा , बाखर छोड़ी, खेत छोड़े खलिहान छोड़े, उड़ना-कपड़ा छोड़े, बासन भांडे़ छोड़े और गहना गुनिया छोड़े ; यहाँ तक कहे कि घर में हीरे रखे हीरा-मोती भी छोड़ के जाना पड़ रहा है । सोडा की आंखों में आंसू आये तो राजू ने डांटा-चलते समय रोते नही हैं भागमान, असमुन होता है ।

आंसू पोछ के सोडा तेज कदमों से चल दी । आगे राजू , बीच मे दोनों फोहा भर के बच्चे और पीछे पीछे सोडा ऊंची-नीची धरती पर ,पगडण्डी-रास्ता छोड़ के दूर-दूर चले जिससे पाँव के निशान तक न रहें । रात पूरी बीती , सूरज उग आया । काहे का नहाना काहे का धोना, जब विधाता की विडमना होती है तो सब बातें भूल जाना चहिये । आंत से निकले बच्चे थकान से बेहाल थे, उन्हें पुटरिया में बंधी रोटी निकाल के खवाईं और चलत चलते ही खाने को दे दीं ।

संझा होते होते वे लोग गोरे से जा मिले और सबने एक नदी किनारे रात बिताई । चोंपे भी थक चुके थे वे भी बैठे , तो आंख मूंद के गहरी नींद मे सो गये ।

विहान हुआ । नदी में नहा धोके राजू ने सगुन बिचारा और फिर से नाक की सीध में चलती धरदी । रास्ते में बगरैत भूरे जाट का राज पड़ा, और उसने इतने करियल देखे तो उसकी नीयत बिगड़ गई । उसने अपने आदमियों के साथ राजू पर हमला कर दिया । बेचारे राजू और गोरे दो जने क्या करते ! अच्छी अच्छी करियल भूरे न छुड़ा लीं । बची खुची लेकर राजू और गोरे आगे बढ़े ।

किसने कोस गिने, किसने रास्ते के गाँव देखे, जाने कितनी दूर पहुंच गये थे कि दूर से एक बड़ा सा नगर दिखा । एक राह चलते राहगीर से उस शहर का नाम पूछा तो पता लगा कि वह झांझ शहर है ।

दूर से दिखा कि चारों ओर खूब हरियाली है, रेत के बीच में स्वर्ग सा दिख रहा था वो शहर । राजू का मन खुश हो गया । उन सबने जल्दी से कदम बढ़ाये और बात की बात में शहर के कोट के सामने जा खड़े हुए । बड़े दरवाजे से नगर में दाखिल हुए, दरवाजे पर बैठे पहरेदारो ने नाम-पता पूछा तो लिखाया: नाम-राजू, निवासी-गड़रा जोन, यहाँ आने का कारण- गाँव मे विपता पड़ी सो जनमभूमि छोड़के काम-धंधे की तलाश में आये हैं।

झांझ में खूब हरियााली थी, खूब पानी था, कमी थी तो दुधारू ढोरों की , सो बात की बात में राजू गूजर की भैंसों का दूध झांझ के हाट-बजार में नामी हो कर छा गया । चार-छह दिन मे लगने लगा कि सही ठौर-ठिकाने पर आ गये हैं, अब विपदा के दिन आराम से कट जायेंगे । लेकिन बुरे दिन कब आयेंगे..... विधना के ऐसे लेख किसने देखे हैं......? विपदा ने अभी पीछा नहीं छोड़ा था,

हरियल घास उपजाने वाले उपजाऊ जमीन से चली भैंसे यहाँ पीली जमीन में सूख् मोसम में आई तो उनकी देह मौसम का ताप न झेल सकी और सब की सब बीमार हो गई , एक को देखा तो दूसरी , और दूसरी को देखा तो तीसरी ।एक एक कर भैंसे जमीन पर पसरने लगीं, जिसे देख पहले गोरे घबराया फिर सोडा और बच्चे डरे , फिर राजू ने उन्हें देखना भालना शुरू किया । लेकिन न बीमारी समझ में आये न बेजुबान जानवरो की पीड़ा, सो बस महादेव शंकर ही एक मात्र भरोसा थे, उन्हें मन ही मन सिमरते हुए घर में जो तेल-गुड़ था वही दवा मान कर भैसों को पिलाना लगे । लेकिन बीमारी तो ऐसी आई थी कि महामारी बन गई । सांझ तक एक एक कर भैंसे लेटने लगी और जो भी लेटती आंखे टेड़ी कर लेती ।

वो रात कालरात्रि बन कर आई, सारी भैंसे एक ही रात में पसर गईं । सारा घर रो पड़ा । अब क्या होगा ?

भैंसों की मृत देह ठिकाने लगा कर लौटे राजू का मन भविष्य की चिंताओं में उलझ गया था ।

...........और काल की गति किसने देखी है ! गड़राजोन में हल्के-पतरे राजा की तरह जीवन जी रहे राजू की करम के लेख से आज क्या गति हो गई थी ।

जब परिवार की गति देखी नहीं गई तो एक दिन सोते में अपना घर छोड़ कर राजू और गोरे जाने कहां को चले गये । सुबह मां और बच्चे उठे तो परेशान हो गये कि पिता और काका कहां गये ?

एक दो दिन इंतजार किया फिर मां ने बच्चों के खाली पेट में कुछ डालने के लिए खुद कुछ करने का फैसला किया, वे भटकती हुई झांझ के राजा के यहाँ पहुंची ओर पहरेदार से पूछा कि कोई काम हो तो वे मजदूरी करने तैयार है । पता लगा कि रसोई में गेहूं पीसने के लिए एक मजदूर की जरूरत है, बेचारी सोडा तैयार हो गई । सांझ तक उसने गेंहू पीसे और रात को घर जाने लगी तो घर भर के लिए भोजन की पत्तल और आटा मिल गया ।

एलादी को मां का यह मजदूरी करना उचित नहीं लगा, उसने मना किया कि मां ऐसे किसी के यहाँ मजदूरी करना ठीक नहीं है, कुछ और कर लो ।...लेकिन अड़साठ साल की बूढ़ी मां करती भी तो क्या ? उसने कह दिया कि तुम्हें बुरा मानना है मान लो, मुझे तो यही करना पड़ेगा , मेरी मजबूरी है ।

नाराज एलादी का मन बुझ गया । अगले दिन वह सुबह सबेरे उठी और बिना किसी को बताये चुपचाप घर छोड़ के बाहर निकल गई ।

मां सोडा बडी परेशान हुई और थक-हार के अपने काम पर चली गई । मां का रोज का यही क्रम चलने लगा, सुबह उठ कर राजा के यहाँ काम पर जाती , रात को मजदूरी में भोजन और आटा लेकर लौटती । मां बेटे खाते और सो जाते ।

उधर एलादी का मन बड़ा दुखी था सो वह भटकती हुई जंगलो की तरफ चली गई , और वैरागिन बनके यहाँ-वहाँ भटकने लगी । जंगलों में उसे एक मंदर का सूना खण्डहर दीखा, तो वह उस खण्डहर में जा पहुंची । बियाबान जंगल में अकेले उसी खंडहर मंदिर में रह कर एलादी गीली मिटटी से बहुत सारे शिवलिंग बनाती और बड़े भक्ति भाव से उनकी पूजा करती । इस तरह एलादी शिव भाक्ति करने लगी । उसे सुबह शाम जब भूख लगती तो वह यहाँ-वहाँ पड़े वृक्षों के पत्ते उठा कर खा लेती ।

उधर एलादी के पिता और काका भटकते हुए लुहार राजा के यहाँ जा पहुंचे थे ,जहां राजा ने अपने यहाँ एलादी के पिता राजू के लिए भट्टी में कोयला झोंकने और काका गोरे को ढोर चराने के काम पर रख लिया ।

इस तरह बारह वरस बीत गये ।

बारह वरस की तपस्या से भोले बाबा शंकर भगवान एलादी की भक्ति से प्रसन्न हो गये और एक दिन ग्वाले का वेश बना कर एलादी के पास पहुंचे । वे एलादी से बोले -बहन, तुम रोज-रोज मिट्टी के शिवलिंग काहे बनाती हो, सासक्षात शिवजी की पूजा काहे नहीं करतीं!

एलादी बोली-साचात शिवजी कहां मिलेंगे ?

ग्वाला वेश धारी शंकरजी बोले -ऊपर पहाड़ पर शंकर जी की मूर्ति है वहाँ जाओ । एलादी पहाड़ के ऊपर पहुंची और चारों ओर शिवजी की पिंडी ढूढ़ने लगी । लेकिन पहाड़ी पर शिवजी की कोई पिंडी नहीं थी । पहाड़ी शिखर पर गोल-मटोल आकार की एक बड़ी सी चट्टान रखी हुई थी,,एलादी ने उसी चटटान को शिवलिंग मान कर जल का लोटा उसके ऊपर ढार लिया । ये क्या, जल ढारते ही बड़े जोर की गर्जना हुई और पहाड़ी एकाएक दो भागों में फट गई । पहाड़ी के भीतर सासक्षात भोले बाब तपस्या कर रहे थे, पहाड़ी फटी तो उसमें से भोले बाबा प्रकट हुऐ और एलादी से पूछा -बोल बहन तू क्या चाहती है !

एलादी बोली-आपने मुझे बहन कहा तो मैं यही मांगती हं कि आप मेरे भाई बनकर मेरी मां की गोदी में जनमें ।

शंकरजी बोले बहन तूने ये क्या मांग लिया, ये कैसे संभव है कि तेरी मां के पेट से मैं जनम लूं ।

एलादी ने बहुत पूछा लेकिन बहन के रिश्ते का लिहाज करके भोले बाबा ने यह नही बताया कि एलादी की मां अस्सी साल की बूढ़ी डोकरी हो गयी है, अब उनसे कैसे संतान पैदा होना संभव नहीं ! बड़े सोच विचार के बात भोले बाबा ने एलादी कहा- जा बहन तेरा कहा पूरा करूंगा, लेकिन मेरी कहां याद रखना ।

एलादी बोली आप जो कहें वह पूरा करूंगी !

शंकर भगवान बोले अगले महीने सोमवती अमावस्या है, उसी महीने मलमास यानी कि अधिक मास (पुरूषोत्तम मास) है, आनी मां से कहना अगर पूरे महीने नहीं नहा पाये तो कम से कम पांच दिन नहा ले । वो सोमवती अमावस्या के दिन जब नदी में नहाने जायेगी, उसकी गोदी में एक कमल का फूल आयेगा, मां से कहना, उस फूल को अपनी गोदी में अरोग ले ।

एलादी खुशी-खुशी घर लौटी, और उसने अपनी मां को अपना सपना कह सुनाया ।

मां बोली- भैया काहे मांगा, सुख और समृद्धि मांगती ।

एलादी बोली जिस दिन भोला खुद मेरे भैया बनके आयेंगे, सुख और समृद्धि तो अपने आप ही आ जायेगी ।

अस्सी साल की मां से अधिकमास मे न सुबह से जगा जाये न नदी तक नहाने जाने की दम थी । एलादी अपनी मां को जगाती और पीठ पर लाद के नदी में ले जाती । नदी में और भी दूसरी सखियां नहां रहीं होतीं, वे एलादी की मां को देख कर हंसती । एलादी चुप ही रहती । सोमवती अमावस्या आई। मां नहा रही थी कि देखा नदी के स्रोते की तरफ से तीन-चार कमल के फूल बहते चले आ रहे हैं । वह गोदी खोल कर फूल लेने के लिए पानी में ही बैठ गई । उसके आगे पानी की धारा में जो सखियां नहा रहीं थीं ,उन्होंने भी फूल देखे तो वे भी गोदी खोल के आशीर्वाद का फूल लेने को लपकीं । लेकिन ईश्वर की कृपा थी कि वे फूल किसी की गोदी में न आये सीधे एलादी की मां सोडा के आंचल में आ कर रूके ।

यह देखा तो रोज-रोज नहाने आने वाली वे सखियां गुस्सा हो उठीं-हम एक महीना से रोज नहा रहीं है, हमे फूल नहीं मिले, और यह बुढ़िया एक दिन में ही कमल का फूल ले जा रही है ।

उन सबने मिल कर सोड से कहा -ये डोकरी हमारे हिस्ससे के फूल कहां ले जा रही है? हम रोज की नहाने वाली हैं फूल भोले बाबा ने हमे भेजा है ।

एलादी कुछ कहाने वाली थी कि मां गने रोक दिया, बोली- बहन तुम्हारे भाग्य मे ंहोगा तो तुम्हें मिल जायेगा । मैं दुबारा से स्रोते में कमल सिरा देती हूं ।

कमल दुबारा स्रोते में सिरा दिये गये और सब सखियां आचल फैला कर पूरी नदी घेर कर बैठ गयीं । लेकिन जहां सखियां थीं वहाँ कमल अलोप हो गये और उनके पीछे जहां एलादी की मां सोडा बैठी थीं वहाँ कमल प्रकट हुये और सीधे सोडा की गोदी में आकर समा गये । अब सखियों की आंख खुलीं ओर वे सोडा के भाग्य सराहने लगी और अपनी गलती के लिये उनसे क्षमा मांगने लगीं । वे सखियां घरको चलीं तो गली-गली सोडा की बात सुनाते चलीं गई।

फूल लेकर सोडा बाहर निकलीं और अपनी बेटी से बेाली- बेटी मुझे जल्दी से घर ले चल , मेरी गोदी भारी होने लगी है ।

मां को पीठ पर लाद कर एलादी घर की ओर चली । टूटी सी मढै़या में टूटी सी खटिया विछा कर उसने मां को लिटाया । मां ने कहा बेटी सूप ले आ ।

एलादी ने सूप लाकर रखा तो सोडा ने सूप में कमल के वे फूल धीरे से रख दिये, और ये क्या ! सूप में धरते ही वे कमल के फूल पांच बरस के सुंदर बच्चा के रूप में बदल गये । उनहे देख एलादी भारी खुश हुई ं उधर जनमते ही बच्चा बोला-बहन तेरा कहना पूरा कर दिया मैंने । अब तू जा और पिताजी को बुला ला । वे आयेंगे तो मेरे जनम के सारे संस्कार होंगे।

एलादी ने कहा-उन्हें जाये बारह बरस हो गये पिता और काका का तो कोई पता नहीं है हमको । जाने कहां है वे दोनों ।

भैया बोला-जा लुहार राजा के यहाँ चली जा । उसके यहाँ पिताजी कोयला झाोेंक रहे हैं और काका उसी के ढोर चरा रहे है।

एलादी दौड़ी और लुहार राजा के दरवाजे पर जाकर बोली -दादा किवार खोल देउ तुम्हारी बिटिया एलादी तुम्हें पुकार रही है ।

भीतर पशुशाला में सो रहे गोरे ने बड़े भैया से कहा -भैया ,हो न हो , एलादी की आवाज लग रही है ।

राजू बोले-अपन को उनहे छोड़ कर आये बारह वरस हो गये । जाने वे जीते भी हैं या मर- ख्रर गये कहीं । उनहे कैसे पता कि अपन लोग यहाँ हैं ।

लेकिन एलादी ने फिर पुकारा- दादा, मै एलादी आपको बुला रही हू ,जल्दी से घर चलो । मुझे पता है कि आप और काका यही रहते हों ।

राज तुरत ही बाहर निकले और पूछा -तू ऐसी काहे चिल्लाती है ।

एलादी बोली-दादा ,जल्दी चलो । घर मे भैया ने जनम लिया है ।

पिता बोले-तू सिर्रन तो नही हो गयी बिटियारानी, हम बारह बरस से घर से बाहर हैं, तेरी मताई की उम्मर अस्सी साल की हो गई होगी , ऐसी झंख डोमकरी के कहा से बच्चा हुआ होगा । लोग कहेंगे -पति बाहर था, औरत जाने कहां कुकर्म कर आई । बेटी वैसे ही बुरा बखत चल रहा है , तू धीरे से बोल ! काहे बदनामी कराती है ।

एलादी बोली -दादा आप डरो जिन, मेरी तपस्या से खुश होकर अपने महादेव शंकर खुद भैया का रूप धर के प्रकट भये हैं । वे अवतारी है, उन्होंनेतो कूख से जनम नही लिया, वे बिना भव के जनम लेने वाले देवता है । आपको विश्वास न हो तो देख लो आपके लुहार राजा का बुरज झुक गया है । उधर देखो राजा की सिहांसन पलट गई है ।

राजा ने देखा तो सचमुच लुहार राजा के किले के पांच बुर्ज झुक गये थे, और दूर राजा के आंगन में उनकी सिंहासन उलटी पड़ी थी । उनहे कुछ कुछ विश्वास हुआ ।

डरता-सहमता राजू घर पहुंचा तो देखा, सूप मे पांच बरस के राजकुंवर जैसे लला खेल रहे है ।

वे बाहर लौटे और छोटे भाईग् से बोले-गोरे जा भैया, नाइन ओर वरारहिन को बुला ला, बच्चे के जनम के संस्कार करा लें ।

गोरे दौड़ा और बात की बात में दोनों औरतों को बुला लाया ।

बच्चे के असनान और नरा काटने के संस्कार हुए । दोनों औरतें अपनी दक्षिणा के लिए खड़ी हो गई। एलादी बड़ी शर्मिन्दा सी हुई कि इनहे अब दक्षिणा कहां से दें, घर में तो फूटी कौड़ी भी नही है ।

भैया समझ गये बोले-बहन लाज में मति मर, काका के पुराने घड़ा में जवा धरे हैं उनसे इन दोउअन की ओली भर दे ।

एलादी ने दौड़ कर घड़ा खोजा और पुराने घुने जवा निकार के दोनों की ओली भर दी । वरहारिरन ते बच्चा को आशीशती हुई अपने घर चली गई, लेकिन नाइन ने अपनी ओली वही झटक दी और बोली- जे घुने जवा को हम कहा करेगे,सम्हालो अपने जवा ।

जब वह घर पहुंची और अपनी धोती निकाल रही थी कि देखा एक दो जवा अभी भी धोती में उलझे रह गये हैं, उसने झटकने के लिए हाथ चलाया तो लगा कि ये तो भारी वजन के जवा है । उसने ध्यानसे देखा तो चकित रह गयी , वे जवा सोने के हो गये थे । उसके अगल-बगल के जवा मोती बन गये थे । अपनी गलती से उसे बड़ा दुख हुआ वह दौड़ती हुई बरहारिन के घर पहुंची तो देखा कि वह अपने घड़े में जवा रख कर अपने घर का काम कर रही है । नाइन ने उसे जवा के सोने के हो जाने का का चमत्कार बताया तो वह बोली कि बेचारी परदेसिन गरीब का काहे मजाक उड़ाती हो ।

नाइन के कहने से उसने अपन घड़ा देखा तो चकित रह गयी -उसका घड़ा सोने और मोतियों से भर गया था ।

नाइन ने उससे कहा कि मुझे आधा-आधा दे, तो वह तुनक कर बोली तुझे तो नखरे आ रहे थे, अब जा अपनी अपनी किस्मत है और अपने अपने करम का फल है ।

कहने वाले कहते हैंकि वह बाद में नाइन दुबारा से राजू गूजर के घर गयी और आशीरवाद मान के उसके आंगन की राख गोदी मे भर लाई और घर में एक तरफ डाल दी तो घर के चारो ओर राख के पहाड़ हो गये । वह फावड़ा उठा के राख हटाने में जुट गई लेकिन रात तक वह तनिक सी भी राख न हटा पाई ।

उधर वरहारिन ने पूरे गाँव में राजू गूजर के घर अवतारी पुरूष के जनम लेने की खबर फैला दी । घर-घर में राजू के भाग्य की चर्चा होने लगी । नाइन का पति अपनी घरवाली को यह खबर सुनाने लौटा तो देखा वहाँ राख के पहाड़ हैं, वह अपनी घरवाली के लड़ंके स्वभाव को जानता था ,बोला - तू जरूर बेचारे राजू के घर कुछ उल्टा-सीधा बोल के आई है । जा उनके यहाँ छिमा मांग के आ, जिससे ये दालिद्दर दूर हो जाये ।

नाइन राजू के घर जाकर बच्चे से माफी मांगने लगी ओर एलादी की माता की सेवा मे जुट गई, उसने देखा कि पंडित जी आये हैं और बंच्चे की नाम धरई हो रही है ।

पंडित बोल रहे थे-ये बच्चा पुष्य नक्षत्र में जनमा है, इसका पुण्य प्रताप पूरे जग मे फैलेगा , तुम्हारा बेटा अवतारी पुरूष है । इसका नाम कारसदेव प्रसिद्ध होगा । इसे हीरामन भी कहा जायेगा । ढोर-बछेरू के रोग बीमारी इसका नाम लेते ही दूर भाग जायेगी । राजू भैया, समझ लो तुम्हारे बुरे दिन बहुर गये, ये बेटा तुम्हारे सारे बैर बहोरेगा । जाओ खूब खुशी मनाओ ।

फिरक्या था, राजू के घर अल्ले पल्ले धर बरसा । वे फिर से राजा हो गये । लुहार राजा उनकी शरण मे आये ओर अपना राज पाट उन्हें सोंप दिया । कुंवर दिन दूने और रात चौगुने हो गये ।

इतना कह उन बुजुर्ग ने बताया कि कारसदेव की अनेक चढ़ई हैं किसी दिन फिर आकर सुनायेंगे अभी तो कथा को यहीं विसराम देते है। बोलो कारसदेव की जय....!

गिरेाह के सब लोगों ने जय जय कार की तो पकड़ के लोग भी जय जयकार करने लगे